झारखंड में सरहुल क्यों मनाई जाती है – Sarhul in Jharkhand

Sarhul in Jharkhand – झारखंड में सरहुल क्यों मनाई जाती है? झारखंड में इन दिनों सरहुल पर्व मनाया जा रहा है. आदिवासियों का यह प्रमुख त्यौहार है. पतझड़ के बाद जब पौधे हरे भरे होने लगते हैं तब सरहुल का यह पावन पर्व मनाया जाता है. झारखंड में यहां पर महीने भर चलता है हर साल चैत्र मास के कृष्ण पक्ष के तृतीय को चांद दिखाई पड़ने के साथ ही सरहुल का आगाज हो जाता है. वही, पूर्णिमा के दिन में यह पर्व संपन्न हो जाती है.

माना जाता है कि सरहुल त्यौहार धरती माता को समर्पित है. इस त्यौहार के दौरान प्रकृति की पूजा की जाती है. झारखंड में रहने वाली आदिवासी जनजाति का यह मानना है कि इस त्यौहार को मनाए जाने के बाद ही. नई फसल का उपयोग शुरू किया जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह पर्व रबी की फसल काटने के साथ ही शुरू हो जाती है. इसलिए से नए वर्ष के आगमन के रूप में भी मनाया जाता है.

झारखंड में सरहुल क्यों मनाई जाती है – Sarhul in Jharkhand

सरहुल झारखंड और अन्य आदिवासी बाहुल्य इलाकों में प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है. इसके पीछे का इतिहास भी काफी पुराना है. सरहुल दो शब्दों से मिलकर बना है. पहला “सर’ और दूसरा “हुल” सर का मतलब सरई या सखुआ का फूल होता है. वही, हुल से तात्पर्य क्रांति होती है.

इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा जाता है. सरहुल में साल और सुखवा वृक्ष की विशेष तौर पर पूजा की जाती है. इस पर्व को झारखंड की विभिन्न जातियां अलग अलग नाम से मनाती है. उराव जनजाति इसे ” खुदी पर्व” संथाल लोग इसे “बहा पर्व” मुंडा समुदाय के लोग इसे “बा पर्व” और खड़िया जनजाति इसे “जंकौर पर्व” के नाम से मनाती है.

सरहुल पूजा शुरु होने से पहले पहाड़िया पुजारी को उपवास करना होता है. वह सुबह की पूजा करते हैं. इसके बाद पहाड़ घर-घर जाकर जल और फूल वितरित करते हैं. घरों में फूल देकर पानी यह संदेश देता है कि फूल खिल गए हैं, इसलिए फल की प्राप्ति निश्चित है, खुशी और उल्लास के त्यौहार में गांव के सभी आदिवासी समुदाय के लोग इकट्ठा होकर मांदर की थाप पर जमकर नृत्य करते हैं.

सरहुल में लाल पाड़ साड़ी का महत्व

सरवन में प्रचलित है – नाची से बांची. जिसका अर्थ यह होता है कि जो नाचेगा वही बचेगा. क्योंकि, आदिवासी समुदाय के बीच में यह मान्यता है कि नृत्य ही संस्कृति है. इसमें पूरे झारखंड में जगह-जगह नृत्य उत्सव होता है. Sarhul in Jharkhand

महिलाएं लाल पाल साड़ी पहनती है. ऐसा इसलिए क्योंकि सफेद पवित्रता और शालीनता का प्रतीक है. वही लाल संघर्ष का. सफेद रंग सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा और लाल बुरूबोंगा का प्रतीक माना गया है. इसलिए असर ना झंडा भी लाल और सफेद ही होता है.

सैनेगे सुसुन, काजिगे दुरंग….. यानी जहां चलना नृत्य और बोलना गीत संगीत है. यही झारखंड का जीवन है. हाड़ तोड़ मेहनत के बाद रात में पूरा गांव अखाड़ा में साथ-साथ नाचता गाता है. ऐसे में बसंत में सरहुल को खुशियों का पैगाम माना जाता है. क्योंकि, इस समय प्रकृति जो यौवन पर होती है. फसल से घर और फल फूल से जंगल भरा रहता है. मानते हैं प्रकृति किसी को भूखा नहीं रहने देगी.

सरहुल पूजा में हडियां का इस्तेमाल

महान द्वारा पूजा करने के बाद में, गांव में सरना जुलूस निकाला जाता है. सरना पहुंचकर पूजा स्थल की सफाई की जाती है. पुजारी मुर्गी के छोटे चैंगनों के पैर धो कर उन पर सिंदूर लगाता है और पहन को देता है. इस तरह से सरना स्थल पर सरहुल के लिए पूजा का आरंभ होता है. सरना स्थल से पूजा की समाप्ति होने पर पहाड़ घर पहुंचने पर पहन की पत्नी उसका पैर धोती है और बदले में सखुआ फूल, चावल और सर नाका आशीष जल प्राप्त करती है. वह फूलों को घर के अंदर, गोहर घर में और छत में चुन देती है. पहन के सिर पर कई घड़े पानी डालते वक्त लोग फिर चिल्लाते हुए कहते हैं -” बरसो, बरसो”.

दूसरे दिन पहाड़ प्रत्येक परिवार में जाकर सखुआ फूल रूप से चावल और घड़े से सरना जल वितरित करता है. गांव की महिलाएं अपने अपने आंगन में एक सूप लिए खड़ी रहती है. सूप में दो-दोने होते हैं. एक सरना जल ग्रहण करने के लिए खाली होता है दूसरे में पहाड़ को देने के लिए हडिया होता है. Sarhul in Jharkhand

सरना जल को घर में और बीज के लिए रखे गए धन पर छिड़क आ जाता है. इस प्रकार पहाड़ हर घर घर जाकर के सरना जल से घर को आशीष देते हुए कहता है -” आपके कोठे और भंडार धन से भरपूर हो” जिससे पहन का नाम उजागर हो.’ प्रत्येक परिवार में पहन को नहलाया जाता है. वह भी अपने हिस्से का हडियां प्रत्येक परिवार से पीना नहीं भूलता है. सरहुल का यह त्यौहार कई दिनों तक चलता रहता है. क्योंकि बड़ा मौजा होने से फूल, चावल और आशीष जल के वितरण में कई दिन लग सकते हैं.

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